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समि॑द्धस्य॒ श्रय॑माणः पु॒रस्ता॒द्ब्रह्म॑ वन्वा॒नो अ॒जरं॑ सु॒वीर॑म्। आ॒रे अ॒स्मदम॑तिं॒ बाध॑मान॒ उच्छ्र॑यस्व मह॒ते सौभ॑गाय॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samiddhasya śrayamāṇaḥ purastād brahma vanvāno ajaraṁ suvīram | āre asmad amatim bādhamāna uc chrayasva mahate saubhagāya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्ऽइ॑द्धस्य। श्रय॑माणः। पु॒रस्ता॑त्। ब्रह्म॑। व॒न्वा॒नः। अ॒जर॑म्। सु॒ऽवीर॑म्। आ॒रे। अ॒स्मत्। अम॑तिम्। बाध॑मानः। उत्। श्र॒य॒स्व॒। म॒ह॒ते। सौभ॑गाय॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:8» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:3» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब कौन मनुष्य कल्याण को प्राप्त होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे रश्मिरक्षक सूर्य के समान तेजस्वी विद्वन् ! आप (पुरस्तात्) पहिले से (समिद्धस्य) प्रदीप्त तेजस्वी विद्वान् का (श्रयमाणः) सेवन करते और (अजरम्) अक्षय (सुवीरम्) जिससे उत्तम वीर पुरुष हों ऐसे (ब्रह्म) बढ़े धन को (वन्वानः) सेवन करते हुए (अस्मत्) हमारे (आरे) समीप वा दूर में (अमतिम्) अधर्मयुक्त विरुद्ध बुद्धि को (बाधमानः) नष्ट करते हुए (महते) बड़े (सौभगाय) उत्तम ऐश्वर्य होने के लिये निरन्तर (उत्, श्रयस्व) अच्छे प्रकार सेवन करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (वनस्पते) इस पद की अनुवृत्ति आती है। जो मनुष्य अच्छी शिक्षा से कुबुद्धि का निवारण करते और धनादि ऐश्वर्य के साथ सुशिक्षा, विद्या और धर्म का प्रचार करते हुए सबके कल्याण की इच्छा करें, वे सदैव कल्याणभागी होवें ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ के जनाः कल्याणमाप्नुवन्तीत्याह।

अन्वय:

हे वनस्पते त्वं पुरस्तात्समिद्धस्य विदुषः श्रयमाणोऽजरं सुवीरं ब्रह्म वन्वानोऽस्मदारेऽमतिं बाधमानः सन् महते सौभगाय सततमुच्छ्रयस्व ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (समिद्धस्य) प्रदीप्तस्य (श्रयमाणः) सेवमानः (पुरस्तात्) (ब्रह्म) महद्धनम् (वन्वानः) संभजमानः (अजरम्) अक्षयम् (सुवीरम्) शोभना वीरा यस्मात्तत् (आरे) समीपे दूरे वा (अस्मत्) (अमतिम्) विरुद्धामधर्मयुक्तां प्रज्ञाम् (बाधमानः) (उत्) (श्रयस्व) उत्कृष्टतया सेवस्य (महते) (सौभगाय) उत्तमैश्वर्यस्य भावाय ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र पूर्वमन्त्रात् (वनस्पते) इति पदमनुवर्त्तते। ये जनाः सुशिक्षया कुबुद्धिं निवारयन्तो धनाद्यैश्वर्येण सुशिक्षाविद्याधर्मान् प्रचारयन्तः सर्वस्य कल्याणमिच्छेयुस्ते सदैव कल्याणभाजः स्युः ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातील ‘वनस्पते’ या पदाची अनुवृत्ती झालेली आहे. जी माणसे चांगल्या शिक्षणाने कुबुद्धीचे निवारण करून धन इत्यादी ऐश्वर्यासह सुशिक्षा, विद्या धर्माचा प्रचार करीत सर्वांच्या कल्याणाची इच्छा करतात, त्यांचे सदैव कल्याण होते. ॥ २ ॥